धनु लग्न का फलदेश

इस लग्न वालों का दिल अच्छा होता है। ये परोपकारी, जनता से सम्पर्क रखने वाले, ज्ञानवान्, धार्मिक प्रवृत्ति वाले, धैर्यशील, सज्जन पुरुष होते हैं ।

सूर्य

1. सूर्य नवमाधिपति होता है जिसका अर्थ यह है कि व्यक्ति के भाग्य में राज्य हो सकता है, शर्त इतनी है कि सूर्य बलवान् हो।

2. धनु राशि में सूर्य मनुष्य को सात्विक तथा धार्मिक बनाता है, क्योंकि सूर्य सात्विक ग्रह धर्म (सात्विक भाव) का स्वामी बनता है और लग्न में स्थित होता है।

3. सूर्य और शुक्र सिंह राशि में नवम भाव में हों और शनि तृतीय भाव में हो, तो शनि की दशा में जातक को भाग्य और धन दोनों की प्राप्ति होती है ।

यहाँ सादृश्य का सिद्धान्त काम करता है । सूर्य भाग्येश होने से भाग्य और धन का दाता है। शुक्र की मूल त्रिकोण राशि लाभ भाव में पड़ती है, इसलिये वह भी लाभ और धन का दाता है। उधर तृतीय भाव में शनि भी धनेश होकर आया है, अतः उसमें भी धन का गुण सूर्य और शुक्र के साथ साझा है, अतः शनि धनदायक सूर्य और शुक्र के प्रभाव में आकर अपनी दशा में धन देगा ।

धनु लग्न का फलदेश

4. रवि और मंगल कुंभ में हों और राहु नवम भाव में हो, तो राहु की दशा में जातक पुण्य कार्य करता है ।

अकेला राहु ही अपनी धर्म भाव में स्थिति के कारण पुण्य कार्य करवा सकता है। यहाँ तो उस पर ‘आत्म’ रूप आध्यात्मिक सूर्य का प्रभाव भी है जोकि नवमेश होकर और भी धार्मिक है ।

इसी प्रकार चूँकि मंगल की मूल त्रिकोण राशि पंचम भाव में पड़ती है जोकि ‘भावात् भावम्’ के सिद्धान्तानुसार नवम से नवम होने के कारण नवम की भाँति ही धर्म के भाव के रूप में कार्य करेगा, इसलिये राहु पर मंगल का प्रभाव भी पुण्य करवाने वाला होगा ।

धनु लग्न में सूर्य महादशा का फल

यदि सूर्य बलवान हो तो अवश्य राज्य की कृपा प्राप्त होती है और उसकी दशा भुक्ति में अधिकार मिलता है। भाग्य में ऊंचे दरजे की वृद्धि होती है। धार्मिक कार्यों में रुचि इस अवधि में विशेष रूप से बढ़ जाती है। पिता के मान और धन में भी नव वृद्धि होती है। पौत्र के जन्म की संभावना रहती है। सट्टे आदि कार्यों में भी प्राप्ति होती है।

यदि सूर्य निर्बल हो तो भाग्य में हानि होती है। राज्य की ओर से विरोध होता है, नौकरी आदि छूट जाती है । व्यापार में हानि उठानी पड़ती है । धार्मिक कार्यों में रुचि कम रहती है, पिता को शारीरिक कष्ट रहता है। सट्टे आदि में हानि रहती है।

चन्द्र

इस लग्न में चन्द्र अष्टमाधिपति बन जाता है। चन्द्र को अष्टमाधिपति होने का दोष नहीं लगता । अर्थात् चन्द्र यदि बलवान् हो तो अपनी भुक्ति में धन मान आदि का देने वाला होता है।

यदि चन्द्र अतीव क्षीण तथा पापयुक्त या पापदृष्ट हो तो शिशु अवस्था में महान् अरिष्ट कारक होता है।

धनु लग्न में चन्द्र महादशा का फल

यदि चन्द्रमा बलवान हो तो भी धन के विषय में बुरा फल नहीं देता । जातक का मन किसी विज्ञान आदि की समस्या के अनुसन्धान में रत रहता है। मनुष्य का स्वास्थ्य साधारण रहता है ।

यदि चन्द्रमा क्षीण और पाप प्रभाव में हो तो अचानक व्यक्ति को महान् शारीरिक कष्ट सहना पड़ता है। धन की कमी रहती है । अनुसन्धान कार्यों में जातक को सफलता प्राप्त नहीं होती ।

यदि अष्टम भाव और चन्द्रमा दोनों पीड़ित हों तो इस अवधि में मनुष्य विदेश यात्रा (Foreign Travel) करता है। यदि ऐसी स्थिति में चन्द्र का सम्बन्ध द्वितीय भाव और उसके स्वामी से रहे तो मनुष्य की यह विदेश यात्रा विद्या सम्बन्धी होती है ।

मंगल

1. मंगल द्वादश तथा पंचम भाव का स्वामी होता है। द्वादशेश अपनी इतर राशि का फल करता है। अतः मंगल पंचम भाव का शुभ फल करेगा ।

2. यदि मंगल बलवान् हो तो

  • धन आदि का देने वाला होता है ।
  • बलवान् मंगल (पंचम से इतर स्थान में) पुत्र की प्राप्ति करवाता है।

3. निर्बल मंगल से विद्या की हानि होती है, पुत्र द्वारा धन का नाश होता है।

4. मेष राशि में स्वक्षेत्री मंगल भी द्वादशेश होने के कारण कर्मों की हानि करने वाला होता है।

5. यदि मंगल मिथुन राशि का सप्तम में हो तो मनुष्य को अतिशय विषयी बनाता है।

धनु लग्न में मंगल महादशा का फल

यदि मंगल बलवान हो और विशेषतया गुरु दृष्ट हो और गुरु भी स्त्री राशियों में स्थित न हो तो जातक को पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है । उसकी मन्त्रणा शक्ति इस अवधि में खूब प्रभाव दिखलाती है और फलस्वरूप उसे बहुत राज्य और मान की प्राप्ति होती है। उसके मान का कारण उसकी सूझ-बूझ होती है। इसी अवधि में उसके अधिकार प्राप्त करने के कारण उसका भाग्य भी चमकता है।

यदि मंगल निर्बल और पीड़ित हो तो अपनी दशा भुक्ति में बुद्धि का नाश करता है। ऐसे व्यक्ति को इस अवधि में राज्य के कारण भाग्य में तथा धन में काफी नुकसान उठाना पड़ता है । उसकी किसी भूल से राज्य सत्ता उसके विरुद्ध कार्रवाई करती है, जिससे उसे बहुत हानि होती है । पुत्र पर बहुत व्यय करना पड़ता है। इस अवधि में जातक के पुत्र को शत्रु से हानि होती है ।

बुध

1. बुध को दो केन्द्रों (सप्तम तथा दशम) का आधिपत्य प्राप्त होता है। बुध यदि बलवान् हो तो राज्य में मान प्राप्ति कराता है ।

2. बुध केन्द्राधिपति दोष उत्पन्न करता है और षष्ठ, अष्टम द्वादश, द्वितीय आदि भावों में निर्बल होकर स्थित होता हुआ अपनी भुक्ति में रोग देता है।

3. यदि बुध पर सूर्य, शनि राहु आदि की दृष्टि हो तो राज दरबार से शीघ्र पृथक हो जाता है।

4. यदि स्त्री की कुण्डली में गुरु तथा बुध पर सूर्य, शनि, राहु आदि का प्रभाव हो तो स्त्री शीघ्र ही पति से पृथक हो जाती है, क्योंकि बुध सप्तमाधिपति विवाहित जीवन का प्रतिनिधि है। कुमार होने से अच्छे-बुरे फल को विवाहित जीवन के प्रारम्भ में ही दिखला देता है। गुरु स्त्रियों के लिए पति ग्रह है ही ।

अतः सूर्य आदि पृथकताजनक ग्रहों का व्यापक प्रभाव तलाक पृथकता आदि को ला खड़ा करता है।

5. इस लग्न वाले पुरुष प्रायः शीघ्र ही विवाह कर लेते हैं क्योंकि बुध शीघ्र फल देने वाला ग्रह है। हां, यदि बुध पापी प्रभाव में हो और शुक्र तथा गुरु (स्त्री कुण्डली में भी) पाप प्रभाव में हों तो विवाह में विलम्ब हो जाता है।

धनु लग्न में बुध महादशा का फल

यदि बुध बलवान हो तो यह जातक को अपनी दशा भुक्ति में मान दिलवाता है। अधिकार की प्राप्ति भी होती है। व्यापार में नाम मिलता है । राज्य की ओर से भी कृपा बनी रहती है।

यदि बुध निर्बल और पीड़ित हो तो राज्य की ओर से प्रकोप होता है । नौकरी जाती रहती है । उस समय अर्थात् बुध की दशा भुक्ति में व्यापार से हानि होती है। स्त्री के कारण अपयश की संभावना रहती है ।

गुरु

1. गुरु लग्नेश तथा चतुर्थेश होता है। अतः यह व्यक्ति बहुत ज्ञानी, गुणी, गम्भीर, दानी, धनी, परोपकारी, जनप्रिय माता का बहुत सुख पाने वाला, हर प्रकार के सुख से सुखी होता है।

2. यदि गुरु निर्बल हो, पापयुक्त अथवा पापदृष्ट हो तो जातक

  • दुख पाता है। 
  • पेट, जिगर, तिल्ली, मेदा आदि के रोगों से पीड़ित रहता हैं तथा इनको नितम्बों में कष्ट होता है।
  • जनता के क्रोध के भागी बनता है।
  • जातक जनता का विरोध करने वाला होता है।

धनु लग्न में गुरु महादशा का फल

यदि गुरु बलवान हो तो अपनी दशा भुक्ति में विशेष सुख देता है । मन स्थिर और शान्त रहता है । माता, वाहन, जमीन, जायदाद के सुख की संभावना रहती है। सर्वसाधारण से सम्पर्क द्वारा लाभ रहता है और धन और मान में वृद्धि होती है।

यदि गुरु निर्बल और पीड़ित हो मनुष्य को अपनी दशा भुक्ति में बहुत दुःख दिलवाता है। जातक को माता, वाहन, जमीन जायदाद, सभी के कारण दुःख उठाना पड़ता है । मानसिक रोग की भी संभावना रहती है । सम्बन्धियों से कलह रहती है और सर्वसाधारण भी व्यक्ति का विरोध उस समय करता है ।

शुक्र

1. शुक्र एकादशेश तथा षष्ठेश बनता है। दोनों क्षति के स्थान हैं। अतः नैसर्गिक शुभ ग्रह होता हुआ भी अपने योग तथा दृष्टि द्वारा भावों की हानि करता है। शुक्र का बलवान् होना धन के लिए विशेष अच्छा नहीं ।

2. जब यह मंगल के साथ मिलकर प्रभाव डाले तो और अधिक अनिष्टकारी तथा हिंसात्मक हो जाता है। शुक्र और मंगल इस लग्न में जिस भाव, भावेश को अपनी युति अथवा दृष्टि द्वारा प्रभावित करेंगे उसको चोट पहुंचाएंगे। जैसे –

  • मंगल तथा शुक्र मिलकर सप्तम स्थान में बैठे हों तो स्त्री के शरीर पर गिरने आदि से चोट पहुंचेगी।
  • यदि मंगल तथा शुक्र दोनों अष्टम भाव में स्थित हों और अष्टमेश पर भी प्रभाव डालें तो व्यक्ति की मृत्यु आघात द्वारा होगी, इत्यादि ।
  • यदि शुक्र और शनि दोनों अपनी युति अथवा दृष्टि द्वारा किसी भाव, भावेश को प्रभावित करें तो उस भाव द्वारा प्रदर्शित अंग में रोग होगा । जैसे शुक्र तथा शनि पंचम भाव में हों तो पेट में निरन्तर रोग रहें।

धनु लग्न में शुक्र महादशा का फल

यदि शुक्र बलवान हो तो शुक्र की दशा भुक्ति में जातक को चोट लगने का भय रहता है । वैसे धन के दृष्टिकोण से यह समय अच्छा रहता है । बड़े वहिन-भाइयों की सहायता भी इस अवधि में प्राप्त होती है। शत्रु इस अवधि में नगण्य रहते हैं ।

शनि

1. यदि शनि बलवान् हो तो जातक

  • बाहु प्रयोग से धन कमाता है।
  • बड़े पुरुषों से मित्रता होती है ।
  • छोटी बहिनें संख्या में बहुत होती हैं। छोटी बहनों से धन की प्राप्ति होती है।
  • मित्र भी सहायता करते हैं।
  • दीर्घ आयु की प्राप्ति होती है।
  • इसकी स्त्री की आयु दीर्घ होती है।

2. यदि शनि निर्बल हो तो

  • छोटे बहिन, भाइयों तथा मित्रों द्वारा धन का नाश होता है।
  • आयु क्षीण होती है।
  • स्त्री की आयु कम होती है ।

3. पंचम भाव में मेष राशि में स्थित शनि की दशा में धनादि प्राप्ति का शुभ फल होता है ।

क्योंकि शनि की मूल त्रिकोण राशि तृतीय भाव में पड़ती है। शनि ने इसलिए मुख्यतया तृतीय भाव का फल करना है। तृतीय पापी भाव है । इस भाव का स्वामी होकर और इस से तृतीय में स्थित होकर शनि निर्बल है । शनि इसलिये भी निर्बल है कि वह अपनी नीच राशि मेष में है और फिर पंचम भाव में भी ।

तृतीयेश का इस प्रकार अतीव निर्बल होना तृतीय भाव की निर्धनता आदि दुर्गुणों का नाश करके बहुत धन प्राप्ति का कारण होगा।

इसके अतिरिक्त शनि धन स्थान में पड़ी अपनी राशि मकर को देखेगा जिसके फलस्वरूप धन भाव बलवान् होकर जातक को धनी बनावेगा ।

4. एकादस्थ शनि बहुत धनादि का देने वाला होता है । क्योंकि ऐसे में शनि धनेश होकर लाभ भाव में उच्च होता है। धन और लाभ से सम्बन्ध और शनि की उच्चता शुभ फल देगी ही।

धनु लग्न में शनि महादशा का फल

यदि शनि बलवान हो तो मित्रों से तथा भृत्य वर्ग से धन का लाभ रहता है। विद्या में उन्नति होती है । कुटुम्ब से भी कुछ सहायता मिलती है।

यदि शनि निर्बल हो तो यह ग्रह अपनी दशा भुक्ति में मित्रों से हानि दिलाता है, परन्तु धन में अच्छी वृद्धि करता है । बहिन-भाइयों की ओर से व्यवहार अच्छा नहीं मिलता ।

फलित रत्नाकर

  1. ज्योतिष के विशेष सूत्र
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  3. वृष लग्न का फलादेश
  4. मिथुन लग्न का फलादेश
  5. कर्क लग्न का फलादेश
  6. सिंह लग्न का फलादेश
  7. कन्या लग्न का फलादेश
  8. तुला लग्न का फलादेश
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